उत्तर प्रदेश की सियासत से दिन-प्रतिदिन सिकुड़ और सिमट रही समाजवादी पार्टी का ‘परिवारवाद’ अभी भी थमने का नाम नहीं ले रहा

किसी को मसनद मिली और दस्तार तक रक्खा गया,
किसी को बस्स रौनक़-ए-दरबार तक रक्खा गया,
वोट पाकर बन गया कोई यहाँ CM, सांसद, विधायक या वज़ीर,
और किसी को दावत-ए-अफ्तार तक रक्खा गया – उस्मान सिद्दीक़ी
उत्तर प्रदेश:–भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में लगातार चार चुनाव (2014-लोकसभा, 2017-विधानसभा, 2019-लोकसभा, 2022-विधानसभा) हारने और उत्तर प्रदेश की सियासत से दिन-प्रतिदिन सिकुड़ और सिमट रही समाजवादी पार्टी का ‘परिवारवाद’ अभी भी थमने का नाम नहीं ले रहा है।
वैसे तो साल 1992 में समाजवादी पार्टी के गठन से लेकर अब तक पार्टी हाईकमान ने समाजवादी विचारधारा के मूल सिद्धांत की धज्जियाँ उड़ाते हुये हमेशा सैफई परिवार को ही मलाई से नवाज़ने और रेवड़ियाँ बाँटने का काम किया है।
साल 2012-2017 की अखिलेश सरकार के कार्यकाल के दौरान समाजवादी पार्टी की सियासत में एक वक़्त तो ऐसा आ गया था राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर प्रदेश अध्यक्ष तक और मुख्यमंत्री के पद से लेकर कैबिनेट मंत्रियों, विधायकों, सांसदों, दर्जाप्राप्त राज्यमंत्रियों, विभिन्न सरकारी विभागों के चेयरमैनों, ज़िला पंचायत अध्यक्षों और ब्लाॅक प्रमुखों के पदों तक सिर्फ और सिर्फ सैफई परिवार का क़ब्ज़ा नज़र आता था और एक ही परिवार/ख़ानदान के तक़रीबन 26 लोग विभिन्न सरकारी पदों पर तैनात थे।
डाॅ. राममनोहर लोहिया के समाजवाद के नाम पर इस सब तमाशे को देखकर प्रदेश से लेकर देश के तमाम हिस्सों में एक कहावत ख़ासी चर्चित हो गई थी कि÷
‘सैफई परिवार में अब बच्चे नहीं पैदा होते,
बल्कि मुख्यमंत्री, विधायक और सांसद पैदा होते हैं…’
और इस सबको लेकर देश भर में समाजवादी पार्टी और सैफई परिवार की ख़ासी किरकिरी भी हुई थी।
लेकिन ताज़ा मामला है हाल ही में होने वाले आज़मगढ़ लोकसभा उप-चुनाव का जहाँ सपा मुखिया अखिलेश यादव के इस्तीफे के बाद हाईकमान ने पार्टी के किसी ज़मीनी, संघर्षरत और वफादार कार्यकर्ता/नेता को सांसद प्रत्याशी बनाने की जगह सैफई परिवार के ही चश्म-ओ-चिराग़ और माननीय नेताजी मुलायम सिंह यादव जी से बड़े और परिवार में दूसरे नंबर के भाई अभयराम यादव के बेटे धर्मेंद्र यादव को चुनावी मैदान में उतार दिया है।
धर्मेन्द्र यादव से पहले साल-2019 में आज़मगढ़ लोकसभा सीट से सपा मुखिया अखिलेश यादव ख़ुद और उससे पहले साल-2014 में सपा संरक्षक माननीय मुलायम सिंह यादव जी सांसद पद पर क़ब्ज़ा कर चुके हैं।
चौंकाने वाली बात ये है कि सैफई से तक़रीबन 600 किमी दूर आज़मगढ़ लोकसभा सीट पर पार्टी को कोई क़ाबिल प्रत्याशी नहीं मिलता या फिर पार्टी अपने किसी नेता/कार्यकर्ता को सांसद बनाने लायक़ नहीं समझती इसका जवाब तो बस्स पाताल में ही छुपा है।
इतना ही नहीं लगातार चार चुनाव हारने के बावजूद पार्टी हाईकमान ने शायद अभी तक हार के कारणों की समीक्षा और उससे सबक़ लेना भी नहीं सीखा है जिसका जीता-जागता उदाहरण है पिछले कई बार से प्रत्याशी घोषित करने में ज़रूरत से ज़्यादा देरी करना।
इस बार आज़मगढ़ लोकसभा सीट पर एक बार फिर ऐसा हुआ है जब 22 मार्च 2022 को आज़मगढ़ संसदीय सीट से इस्तीफा देने वाले माननीय अखिलेश यादव जी ने पूरे तीन महीने बाद उप-चुनाव नामांकन तिथि के अंतिम दिन अपना पैराशूट प्रत्याशी मैदान में उतारा।
हालाँकि समाजवादी पार्टी से जुड़े सूत्रों के मुताबिक़ प्रत्याशी के ऐलान की ये देरी इस वजह से हुई क्योंकि सपा मुखिया अखिलेश यादव ये तय ही नहीं कर पा रहे थे कि वो ख़ुद के द्वारा रिक्त की गई संसदीय सीट किसके खाते में डालें????
सैफई परिवार से ख़ुद अखिलेश यादव जी के बाद अगला क़ब्ज़ेदार सैफई परिवार से ही होगा या फिर पार्टी के किसी क़ाबिल, मेहनती, ईमानदार, संघर्षशील और वफादार नेता/कार्यकर्ता को इनाम देकर उसकी क़िस्मत खोली जायेगी।
सपा हाईकमान के हाईलेवल गोपनीय सूत्रों के मुताबिक़ सपा मुखिया अखिलेश यादव जी की पहली पसंद उनकी पत्नी डिंपल यादव जी थीं जिनका पहले राज्यसभा में पत्ता काटा गया और अब लोकसभा के रास्ते में भी बैरिकेडिंग अढ़ा दी गई।
लेकिन डिंपल यादव जी को बैरिकेड का ये तोहफा ऐसे ही नहीं मिला बल्कि इसके पीछे एक बहुत बड़ी वजह छुपी हुई है।
दरअसल, अखिलेश यादव और उनकी पत्नी डिंपल यादव का सियासी सफर उप-चुनाव से ही शुरु हुआ है।
अखिलेश यादव साल-2000 में तत्कालीन सपा मुखिया और उनके पिता माननीय मुलायम सिंह यादव जी के द्वारा रिक्त की गई कन्नौज संसदीय सीट पर हुये उप-चुनाव में पहली बार सांसद चुनकर लोकसभा में पहुँचे थे।
इसी तरह साल-2009 में अखिलेश यादव जी की धर्मपत्नी डिंपल यादव जी का सियासी सफर भी उप-चुनाव से ही शुरु हुआ था जब एकसाथ फिरोज़ाबाद और कन्नौज यानी दो संसदीय सीटों से लोकसभा चुनाव जीतने वाले अखिलेश यादव ने कन्नौज सीट अपने पास रख फिरोज़ाबाद सीट रिक्त कर दी थी और कुछ ही दिन बाद हुये उप-चुनाव में अपनी पत्नी डिंपल यादव को सपा का अधिकारिक प्रत्याशी बनवा दिया था।
लेकिन डिंपल यादव जी की क़िस्मत अपने पति अखिलेश यादव के जितनी अच्छी नहीं निकली और जीवन में पहली बार चुनावी पिच पर उतरीं डिंपल यादव को सूबे की तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी BSP की मदद से सिने अभिनेता और कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी राज बब्बर ने क्लीन बोल्ड कर दिया था।
और उसके बाद साल-2012 में अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद कन्नौज संसदीय सीट पर हुये उप-चुनाव में निर्विरोध और साल-2014 में भी कन्नौज संसदीय सीट से ही निर्वाचित होकर डिंपल यादव भारतीय संसद के अंदर पहुँच पाईं थीं लेकिन दोनों बार डिंपल यादव को तब सांसदी मिली जब उनके पति अखिलेश यादव सूबे के मुख्यमंत्री थे और दोनों बार डिंपल यादव की जीत का श्रेय सूबे के सत्ताधारी होने के खाते में चला गया था।
लेकिन अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री पद से हटते ही साल-2019 के लोकसभा चुनाव में कन्नौज से लगातार 2 बार की सांसद डिंपल यादव एक बार फिर चुनावी पिच पर बुरी तरह विफल साबित हुईं और उसके बाद पिछले 3 साल से वो देश की सियासी उठापटक से लगभग दूर अपने घर बैठी हैं।
अब आज़मगढ़ लोकसभा सीट पर हो रहे उप-चुनाव में एक बार फिर अखिलेश यादव ने अपनी पत्नी डिंपल यादव को प्राथमिकता दी थी लेकिन सत्ता से बाहर होने के चलते पूर्व में ही हार का अनुमान लगाकर सपा मुखिया अखिलेश यादव जी ने ऐन वक़्त पर डिंपल यादव जी पर रिस्क ना लेकर उनकी जगह सैफई परिवार के ही चश्म-ओ-चराग़ धर्मेंद्र यादव पर दाँव लगा दिया है।
लेकिन नामांकन में देरी और प्रत्याशियों की अदला-बदली के चक्कर में धर्मेंद्र यादव की आज़मगढ़ लोकसभा सीट की राह भी अब आसान नहीं है।
दरअसल, धर्मेंद्र यादव भी साल-2019 के लोकसभा चुनाव में बदायूँ लोकसभा सीट से बुरी तरह हारकर घर बैठ चुके हैं और उनका ये हाल तब हुआ था जब सूबे की 2 सबसे बड़ी और मज़बूत वोटबैंक माने जाने वाले सियासी दलों यानी सपा-बसपा का मिलन हो चुका था और अखिलेश-मायावती की दोस्ती के बावजूद हाथी के भारी वज़न के नीचे दबकर बीच रास्ते में साइकिल पंक्चर हो गई थी।
इस बार सपा-बसपा की राहें जुदा हो चुकी हैं और पूर्व की तरह हाल-फिलहाल दोनों दलों के नेता एक-दूसरे के कट्टर विरोधी हैं जिसके चलते जहाँ एक तरफ सपा के धर्मेंद्र यादव चुनावी पिच पर उतर चुके हैं वहीं दूसरी तरफ हाल ही में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान सपा मुखिया अखिलेश यादव से सियासी गच्चा खा चुके बसपा के पूर्व विधायक और पूर्वांचल के मिनी अंबानी/अडानी नाम से चर्चित धनबली शाहआलम उर्फ गुड्डू जमाली चुनावी मैदान में अपनी ताल ठोंक रहे हैं जिन्होंने एक बार फिर चुनाव जीतने की मंशा से करोड़ों रुपये ख़र्च कर बसपा का ख़ूंख़ार हाथी मैदान में छोड़ दिया है वहीं उनके कारोबारी धन की बोरियों का मुँह भी आज़मगढ़ की जनता को अपनी तरफ लालायित कर रहा है।
सपा प्रत्याशी धर्मेंद्र यादव पर जहाँ बाहरी होने का आरोप लग रहा है वहीं गुड्डू जमाली अभी से अपनी स्थानीयता का प्रमाण पत्र घर-घर जाकर, ढ़ोल-नगाड़े बजाकर बाँट रहे हैं।
आज़मगढ़ में भारी दलित-पिछड़े और मुस्लिम वोट बैंक के चलते जहाँ एक तरफ लगातार बसपा के प्रत्याशी सांसदी जीतते रहे हैं जो गुड्डू जमाली की जीत की मंशा को बल दे रहे हैं वहीं सपा मुखिया अखिलेश यादव ने अपने भाई को टिकट के साथ राह में कुछ कांटे भी तोहफे में दे दिये हैं।
दरअसल, आज़मगढ़ लोकसभा सीट से उप-चुनाव में प्रत्याशी के चिंतन-मनन और स्वार्थी मन के बीच सपा मुखिया अखिलेश यादव जी ने आज़मगढ़ के एक बहुत बड़े दलित नेता, मान्यवर कांशीराम जी के साथी और बसपा की दाई रहे स्वर्गीय बलिहारी बाबू के पुत्र सुशील आनंद को 24 घंटे के लिये समाजवादी पार्टी का अधिकारिक प्रत्याशी घोषित कर लखनऊ से आज़मगढ़ की धरती तक क्रांति ला दी थी।
लंबे वक़्त बाद सपा मुखिया अखिलेश यादव जी का ये एक बहुत अच्छा और क्रांतिकारी क़दम माना गया था लेकिन 24 घंटे के अंदर कुछ घुरपेच फँसने पर अखिलेश यादव जी ने पहले सैफई परिवार के ही चश्म-ए-चराग़ और अपने बड़े चाचा राजपाल यादव जी के पुत्र अंशुल यादव को प्रत्याशी बनाने की ख़बर सियासी बाज़ार में फैलाई और फिर देर रात अपने छोटे ताऊ अभयराम यादव जी के पुत्र धर्मेंद्र यादव को समाजवादी पार्टी का अधिकारिक प्रत्याशी घोषित कर दिया।
अब अपने राजनीतिक इतिहास का सबसे बुरा सियासी दौर काट रही समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी और ‘सैफई नरेश’ धर्मेंद्र यादव जी के सामने बसपा सुप्रीमो मायावती जी के ‘स्थानीय सिपाही’ गुड्डू जमाली और भाजपा के ‘सरकारी सूरमा’ के तौर पर भोजपुरी स्टार दिनेश लाल यादव ‘निरहुआ’ हैं वहीं बसपा के ही काॅडर से आये दलित नेता सुशील आनंद का टिकट काटने का पाप भी है जिसके चलते उनकी ये चुनावी जंग उनके लिये जी का जंजाल बन चुकी है वो इससे कैसे पार पायेंगे क्योंकि उनके बहुत प्यारे, अज़ीज़, बड़े भाई और उनकी पार्टी के मुखिया माननीय अखिलेश यादव जी ने तो उनको क़िस्मत के सहारे मैदान-ए-जंग में छोड़ दिया है जिससे पार पाना उनके लिये आसान नहीं होगा।